श्यामजी कृष्ण वर्मा

                                          

                                                                                                                           

            *श्यामजी कृष्ण वर्मा* 

           (स्वतंत्रता सेनानी)


         *जन्म : 4 अक्टूबर, 1857*

          ( मांडवी गांव, गुजरात)

           *मृत्यु : 31 मार्च, 1930*

            ( जेनेवा, स्विट्ज़रलैण्ड)

पत्नी : भानुमति कृष्ण वर्मा

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, वकील, पत्रकार

विद्यालय : विल्सन हाईस्कूल, मुम्बई; ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय

शिक्षा : बी.ए.

विशेष योगदान : इंग्लैंड से मासिक 'द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट' प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया।

अन्य जानकारी : स्वामी दयानंद सरस्वती के सान्निध्य में रहकर मुखर हुए संस्कृत व वेदशास्त्रों के मूर्धन्य विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त श्यामजी कृष्ण वर्मा 1885 में तत्कालीन रतलाम राज्य के 1889 तक दीवान पद पर आसीन रहे।

               श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत के उन अमर सपूतों में हैं, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आज़ादी के लिए लगा दिया। ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से त्रस्त होकर भारत से इंग्लैण्ड चले गये श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपना सारा जीवन भारत की स्वतन्त्रता के लिए माहौल बनाने में और नवयुवकों को प्रेरित करने में लगाया। स्वामी दयानंद सरस्वती के सान्निध्य में रहकर मुखर हुए संस्कृत व वेदशास्त्रों के मूर्धन्य विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त श्यामजी कृष्ण वर्मा 1885 में तत्कालीन रतलाम राज्य के 1889 तक दीवान पद पर आसीन रहे।

💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर, 1857 को गुजरात के मांडवी गांव में हुआ था। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सन् 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मध्य प्रदेश में रतलाम और गुजरात में जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किए। सन् 1897 में वे पुनः इंग्लैंड गए। 1905 में लॉर्ड कर्ज़न की ज़्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक 'द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट' प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रांतिकारी छात्रों को लेकर इंडियन होमरूल सोसायटी की स्थापना की। श्यामजी कृष्ण वर्मा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से आज़ादी के संकल्प को गतिशील करने वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम.ए. और बैरिस्टर की उपाधियां मिलीं थीं। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था।


📚 *शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र*

श्यामजी कृष्ण वर्मा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से 1883 ई. में बी.ए. की डिग्री प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय होने के अतिरिक्त अंग्रेज़ी राज्य को हटाने के लिए विदेशों में भारतीय नवयुवकों को प्रेरणा देने वाले, क्रांतिकारियों का संगठन करने वाले पहले हिन्दुस्तानी थे। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा को देशभक्ति का पहला पाठ पढ़ाने वाले आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती थे। 1875 ई. में जब स्वामी दयानंद जी ने बम्बई (अब मुंबई‌) में आर्य समाज की स्थापना की तो श्यामजी कृष्ण वर्मा उसके पहले सदस्य बनने वालों में से थे। स्वामी जी के चरणों में बैठ कर इन्होंने संस्कृत ग्रंथों का स्वाध्याय किया। वे महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा के भी सदस्य थे। बम्बई से छपने वाले महर्षि दयानंद के वेदभाष्य के प्रबंधक भी रहे। 1885 ई. में संस्कृत की उच्चतम डिग्री के साथ बैरिस्टरी की परिक्षा पास करके भारत लौटे। इंग्लैण्ड में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रयासों को सबल बनाने की दृष्टि से श्यामजी कृष्ण वर्मा जी ने अंग्रेज़ी में जनवरी 1905 ई. से 'इन्डियन सोशियोलोजिस्ट' नामक मासिक पत्र निकाला। 18 फ़रवरी, 1905 ई. को उन्होंने इंग्लैण्ड में ही 'इन्डियन होमरूल सोसायटी' की स्थापना की और घोषणा की कि हमारा उद्देश्य "भारतीयों के लिए भारतीयों के द्वारा भारतीयों की सरकार स्थापित करना है" घोषणा को क्रियात्मक रूप देने के लिए लन्दन में 'इण्डिया हाउस' की स्थापना की, जो कि इंग्लैण्ड में भारतीय राजनीतिक गतिविधियों तथा कार्यकलापों का सबसे बड़ा केंद्र रहा।

♨️  *विचारधारा*

पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत की स्वतंत्रता पाने का प्रमुख साधन सरकार से असहयोग करना समझते थे। आपकी मान्यता रही और कहा भी करते थे कि यदि भारतीय अंग्रेज़ों को सहयोग देना बंद कर दें तो अंग्रेज़ी शासन एक ही रात में धराशायी हो सकता है। शांतिपूर्ण उपायों के समर्थक होते हुए भी श्यामजी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसापूर्ण उपायों का परित्याग करने के पक्ष में नहीं थे। उनका यह दावा था कि भारतीय जनता की लूट और हत्या करने के लिए सबसे अधिक संगठित गिरोह अंग्रेज़ों का ही है। जब तक अंग्रेज़ स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं तब तक हिंसक उपायों की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जब सरकार प्रेस और भाषण की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगाती है, भीषण दमन के उपायों का प्रयोग करती है तो भारतीय देशभक्तों को अधिकार है कि वे स्वतंत्रता पाने के लिए सभी प्रकार के सभी आवश्यक साधनों का प्रयोग करें। उनका मानना था कि हमारी कार्रवाई का प्रमुख साधन रक्तरंजित नहीं है, किन्तु बहिष्कार का उपाय है। जिस दिन अंग्रेज़ भारत में अपने नौकर नहीं रख सकेंगे, पुलिस और सेना में जवानों की भर्ती करने में असमर्थ हो जायेंगे, उस दिन भारत में ब्रिटिश शासन अतीत की वास्तु हो जाएगा। इन्होंने अपनी मासिक पत्रिका इन्डियन सोशियोलोजिस्ट के प्रथम अंक में ही लिखा था कि अत्याचारी शासक का प्रतिरोध करना न केवल न्यायोचित है अपितु आवश्यक भी है और अंत में इस बात पर भी बल दिया कि अत्याचारी, दमनकारी शासन का तख्ता पलटने के लिए पराधीन जाति को सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाना चाहिए।


🎖️ *सम्मान*

रतलाम में श्यामजी कृष्ण वर्मा सृजन पीठ की स्थापना भी की जा चुकी है। श्यामजी कृष्ण वर्मा की जन्मस्थली माण्डवी गुजरात क्रांति तीर्थ के रूप में विकसित किया जा रहा है। जहां स्वाधीनता संग्राम सैनानियों की प्रतिमाएं व 21 हजार वृक्षों का क्रांतिवन आकार ले रहा है। रतलाम में ही स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों के परिचय गाथा की गैलरी प्रस्तावित है, ताकि भारतीय स्वतंत्रता के आधारभूत मूल तत्वों का स्मरण एवं उनके संबंधित शोध कार्य की ओर आगे बढ़ सके, लेकिन इसके लिए रतलाम ज़िला प्रशासन एवं मध्यप्रदेश शासन की मुखरता भी अपेक्षित है।


🪔 *निधन*

क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा इनके शिष्यों में से एक थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। वीर सावरकर ने उनके मार्गदर्शन में लेखन कार्य किया था। 31 मार्च, 1933 को जेनेवा के अस्पताल में इनका निधन हुआ।


💎 *अंतिम इच्छा*

सात समंदर पार से अंग्रेज़ों की धरती से ही भारत मुक्ति की बात करना सामान्य नहीं था, उनकी देश भक्ति की तीव्रता थी ही, स्वतंत्रता के प्रति आस्था इतनी दृढ़ थी कि पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपनी मृत्यु से पहले ही यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनकी मृत्यु के बाद अस्थियां स्वतंत्र भारत की धरती पर ले जाई जाए। भारतीय स्वतंत्रता के 17 वर्ष पहले दिनांक 31 मार्च, 1930 को उनकी मृत्यु जिनेवा में हुई, उनकी मृत्यु के 73 वर्ष बाद स्वतंत्र भारत के 56 वर्ष बाद 2003 में भारत माता के सपूत की अस्थियां गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर देश की धरती पर लाने की सफलता मिली।

                                       

         

भारतरत्न जयप्रकाश नारायण


      

     *भारतरत्न जयप्रकाश नारायण*


          *जन्म : 11 ऑक्टोबर 1902*

            (सीताबडिअरा , बंगाल   

          प्रेसीडेंसी , ब्रिटीश इंडिया)

         *मृत्यू : 8 ऑक्टोबर 1979*

                 (वय 76)

        (पटना , बिहार , भारत)


राष्ट्रीयत्व : भारतीय

इतर नावे : जेपी, लोक नायक

व्यवसाय : कार्यकर्ता, सिद्धांतवादी,  

                राजकारणी

राजकीय पक्ष : भारतीय राष्ट्रीय    

                      कॉंग्रेस

                      जनता पार्टी

हालचाल : भारत छोडो , सर्वोदय , 

                 जेपी आंदोलन

जोडीदार : प्रभावती देवी

पुरस्कार : रॅमन मॅग्सेसे पुरस्कार  

                     (1965 )

               भारतरत्न (1999) 

                     (मरणोत्तर)

                  जयप्रकाश नारायण हे भारतातील एक समाजवादी राजकीय धुरीण व सर्वोदय कार्यकर्ते. बिहारच्या सारन जिल्ह्यातील सिताबदियार येथे जन्म. तेथेच प्राथमिक व पुढे पाटणा येथे माध्यमिक शालेय शिक्षण. वयाच्या अठराव्या वर्षी प्रभावतीदेवी यांच्याशी त्यांचा विवाह झाला. सासरे ब्रजकिशोर हे बिहारमधील एक राष्ट्रीय नेते व प्रसिद्ध वकील होते. त्यांनीच चंपारण्यातील अन्यायाची दाद लावून घेण्यासाठी गांधीजींना बिहारमध्ये येण्यास पाचारण केले. प्रभावतीदेवींमुळे गांधीजींशी प्रथमपासून त्यांचा निकट संबंध जोडला गेला. इंटरमध्ये असताना त्यांनी असहकाराच्या चळवळीत भाग घेतला. १९२२ मध्ये ते अमेरिकेस गेले.विस्कॉन्सिन विद्यापीठाची समाजशास्त्रातील एम्. ए. पदवी त्यांनी घेतली. १९२९ मध्ये ते भारतात परत आले.

           अमेरिकेतच जयप्रकाशांचा मार्क्सवादी विचारांशी परिचय झाला. मानवेंद्रनाथ रॉय यांचा ‘आफ्टरमाथ ऑफ द नॉन-को-ऑपरेशन’ हा निबंध व मार्क्स, लेनिन, ट्रॉट्स्की यांचे साहित्य वाचून ते कट्टर मार्क्सवादी बनले. गांधींची विचारप्रणाली व कार्यपद्धती यासंबंधी काही काळ ते असमाधानी होते. तथापि काँग्रेसच्या राष्ट्रीय चळवळीसंबंधीच्या भारतीय कम्युनिस्ट पक्षाच्या भूमिकेशीही ते सहमत नव्हते. मार्क्सवाद्यांनी मध्यमवर्गीयांशी सहकार्य करावे, त्यांनी चालविलेल्या वसाहतींमधील राष्ट्रीय चळवळीतून अंग काढून एकाकी पडू नये, या लेनिनच्याच मताचे ते होते. म्हणून भारतात परत आल्यानंतर त्यांनी काँग्रेसमध्ये प्रवेश केला. १९३० मध्ये जवाहरलाल नेहरू काँग्रेसचे अध्यक्ष असताना त्यांनी जयप्रकाशांना काँग्रेसच्या कामगार विभागाचे प्रमुख नेमले. गांधीजी गोलमेज परिषदेहून परत आल्यानंतर झालेल्या सत्याग्रह-चळचळीच्या दुसऱ्या पर्वात सर्व पुढारी तुरुंगात असताना जयप्रकाशांनी चळचळीची सूत्रे सांभाळली. १९३३ मध्ये मद्रास येथे त्यांना अटक होऊन एक वर्षाची शिक्षा झाली. अन्य समाजवादी तरुणांच्या साहाय्याने आणि सहकार्याने त्यांनी १९३४ मध्ये काँग्रेस समाजवादी पक्षाची स्थापना केली.

                   जयप्रकाश या पक्षाचे सरचिटणीस म्हणून नेमले गेले. आपल्या भूमिकेची सांगोपांग चर्चा त्यांनी व्हाय सोशॅलिझम (१९३६) या पुस्तकात केली आहे. भारतीय कम्युनिस्टांनी काँग्रेसला राष्ट्रीय आघाडी म्हणून मान्य केल्यामुळे जयप्रकाशांना समाजवादी कम्युनिस्ट संयुक्त दलाची शक्यता वाटू लागली; म्हणून प्रमुख सहकाऱ्यांचा विरोध असतानाही भारतीय कम्युनिस्ट पक्षाबरोबर त्यांनी समझोता केला. परंतु ही एकता फार काळ टिकली नाही. १९३९ साली दुसरे महायुद्ध सुरू झाले, तेव्हा जयप्रकाशांनी युद्धविरोधाचे व स्वातंत्र्यलढा उग्र करण्याचे धोरण अवलंबिले. त्यामुळे १९३९ मध्ये त्यांना अटक होऊन नऊ महिन्यांची शिक्षा झाली. १९४१ मध्ये पुन्हा त्यांना अटक करून राजस्थानमधील देवळी तुरुंगात ठेवण्यात आले. तेथे राजबंद्यांवरील अन्यायाविरुद्ध ३१ दिवसांचे उपोषण करून सरकारला आपल्या मागण्या मान्य करण्यास त्यांनी भाग पाडले.

        १९४२ च्या सुरुवातीस त्यांना बिहारमधील हजारीबाग तुरुंगात हलविण्यात आले. यावेळी बाहेर ‘छोडो भारत’ आंदोलन सुरु झाले होते. त्यात भाग घेण्यासाठी ८ नोव्हेंबरला अत्यंत साहसपूर्ण रीतीने तुरुंगाच्या भिंतींवरून उडी मारून ते फरारी झाले व भूमिगत संघटनेचे नेतृत्व करू लागले. त्यांनी गनिमी तंत्राने लढणारे ‘आझाद दस्ते’ संघटित केले. त्यांच्या नेपाळमधील हालचालींचा सुगावा लागल्याने त्यांना नेपाळी पोलीस ब्रिटिश हद्दीत नेत असताना आझाद दस्त्याच्या सैनिकांनी अचानक हल्ला करून नेपाळी पोलीसांच्या हातून त्यांची सुटका केली. यानंतर जयप्रकाश भारतात परत येऊन भूमिगत राहून कार्य करू लागले. त्यावेळी सरकारने त्यांना पकडून देणाऱ्यास दहा हजार रुपयांचे इनाम जाहीर केले. १७ सप्टेंबर १९४३ रोजी अमृतसर रेल्वे स्थानकावर त्यांना पकडण्यात आले व तेथून १९४६ साली त्यांची सुटका झाली. त्यानंतर त्यांनी टूर्वड‌्‌झ स्ट्रगल (१९४६) हे पुस्तक प्रसिद्ध करून राष्ट्रीय चळवळीची कारणमीमांसा केली.

      ब्रिटिश सरकारने सुरू केलेल्या वाटाघाटींना, ब्रिटिश सरकारने नेमलेल्या संविधान परिषदेला तसेच देशाच्या फाळणीला जयप्रकाशांचा विरोध होता. अखेर म. गांधींच्या हत्येनंतर काँग्रेसमध्ये राहून समाजवादी समाजरचनेचे ध्येय साध्य होणार नाही; म्हणून त्यांनी १९४८ मध्ये अन्य सहकाऱ्यांच्या मदतीने स्वतंत्र समाजवादी पक्षाची स्थापना करून काँग्रेसला पर्यायी पक्ष निर्माण केला. पक्षाने नैतिक मूल्यांना सर्वोच्च स्थान द्यावे, साधन शुचितेचे महत्त्व मानावे, सत्ता धारण करणाऱ्या पेक्षा सेवा करणाऱ्यांची प्रतिष्ठाअधिक मानावी, असे आपल्या कार्यकर्त्यांना जयप्रकाशांनी आवाहन केले. त्यांची भूमिका लोकशाही समाजवाद्यांची झाली होती. हिंसेपेक्षा गांधीप्रणीत सत्याग्रह तंत्राचा समाजवाद्यांनी अवलंब करावा, ही त्यांची विचारसरणी पक्षाने स्वीकारली. पक्षाचे पहिले सरचिटणीस म्हणून त्यांचीच निवड झाली.

            जयप्रकाश नारायण त्यांनी कामगार व किसान संघटनेकडे १९४८ ते १९५० च्या दरम्यान विशेष लक्ष दिले. हिंद मजदूर सभा, हिंद किसान पंचायत यासंघटना त्यांच्याच प्रयत्नाने स्थापन झाल्या. अखिल भारतीय रेल्वे कामगार संघ, अखिल भारतीय टपाल व तार खाते संघ, अखिल भारतीय संरक्षण कामगार संघ यांचेही ते अध्यक्ष होते. १९५२ मध्ये त्यांनी आचार्य कृपलानी यांचा कृषक मजदूर प्रजा पक्ष व समाजवादी पक्ष यांचे विलीनीकरण घडवून आणण्यात पुढाकार घेतला. या विलीनीकरणातून अस्तित्वात आलेल्या प्रजासमाजवादी पक्षाचे तेच पहिलेसरचिटणीस झाले. १९५२ च्या पहिल्या सार्वत्रिक निवडणुकीत प्रजासमाजवादी पक्षाचा पराभव झाला. त्याच सुमारास टपाल व तार खात्यातील कामगार संपाच्या बाबतीत संबंधित खात्याच्या मंत्र्यांनी दिलेल्या तोंडी आश्वासनांवर भिस्त ठेवून त्यांनी संप मागे घेतला.आश्वासन मात्र पुरे करण्यात न आल्यामुळे अस्वस्थ होऊन जयप्रकाशांनी पुण्यात आत्मशुद्धीसाठी तीन आठवड्यांचे उपोषण केले. या वेळी केलेल्या विचारमंथनातून त्यांची नवी वैचारिक भूमिका तयार झाली. तत्त्वप्रणाली म्हणून त्यांनी आता जाहीर रीत्या मार्क्सवादाचा त्यागकेला.

                 मार्क्सच्या ऐतिहासिक भौतिकवादात माणसाने सदाचारी का असावे, याला उत्तर मिळत नाही, असे मत झाले. भौतिक गरजांची परिसीमा आणि समाजवाद, पक्षीय राजनीती, सत्तेचे विकेंद्रीकरण, मानव समाजामध्ये राज्यसत्तेचे स्थान, जनतेचा समाजवाद विरुद्ध शासकीय समाजवाद, भावी समाजवादाचे रूप इ. प्रश्नांबाबत त्यांनी बराच ऊहापोह केला. १९५३ मध्ये नेहरूंनी जयप्रकाशांना वाटाघाटीस बोलाविले; जयप्रकाशांनी आपला पक्ष बरखास्त न करता मंत्रिमंडळात येऊन सहकार्य करावे, अशी नेहरूंची सूचना होती;परंतु किमान कार्यक्रमावर एकमत झाल्याशिवाय अशा प्रकारचे सहकार्य अशक्य आहे, अशी जयप्रकाश यांनी भूमिका घेतली. ती नेहरूंनामान्य न झाल्यामुळे वाटाघाटी अयशस्वी झाल्या. त्या वर्षी रंगून येथे झालेल्या आशियाई समाजवादी परिषदेत भारतीय प्रतिनिधिमंडळाचे त्यांनी नेतृत्व केले. आशियाई क्रांती ही किसान क्रांती असली पाहिजे; व ही लोकक्रांती अहिंसक मार्गाने करणे इष्ट आहे, असे विचारत्यांनी परिषदेपुढे मांडले.

                      त्यांनी १९५३ नंतर विनोबाजींच्या भूदान आंदोलनात भाग घेण्यास सुरुवात केली. १९ एप्रिल १९५४ मध्ये बोधगया येथील सर्वोदय संमेलनात भूदान कार्यासाठी पक्षीय राजकारणातून त्यांनी संपूर्णतया अंग काढून घेतले. त्यांनी ए प्ली फॉर द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ इंडियन पॉलिटी व फ्रॉम सोशॅलिझम टू सर्वोदय (१९५९) ही पुस्तके लिहिली.१९६१ च्या सर्वोदय संमेलनाच्या अध्यक्षपदावरून भाषण करताना आपल्या राजकारण-संन्यासाच्या मर्यादाही त्यांनी स्पष्ट केल्या होत्या; पक्षीय राजकारणाचा त्याग म्हणजे देशातील घडामोडींसंबंधी उदासीन राहणे नव्हे; उलट राष्ट्रीय जीवनात अधिक परिणामकारक व अधिक रचनात्मक भाग घेण्यासाठी पक्षीय व सत्तात्मक राजकारणातूनआपण दूर झालो आहोत, असे स्पष्टीकरण त्यांनी केले. १९५४ ते १९७२ पर्यंत जयप्रकाश भूदान आंदेलनातच मग्न होते. परंतु या काळातही त्यांनी काही महत्त्वाची राजकीय कामे केली. १९६० मध्ये नवी दिल्ली येथे त्यांनी तिबेटच्या प्रश्नांवर आफ्रो-आशियाई परिषद भरविली; १९६२ मध्ये पाकिस्तानबरोबर पुन्हा स्नेहसंबंध निर्माण व्हावा, या उद्देशाने ‘पाकिस्तान रिकन्सिलिएशन ग्रुप’ स्थापन केला; नागालँडमध्ये शांतता स्थापन करण्यासाठी भारत सरकारने नेमलेल्या शांतता मंडळाचे ते सदस्य होते.

              जयप्रकाशांच्या प्रयत्नाने १९६४ मध्ये भारत सरकार व नागा बंडखोर पुढारी यांत युद्धविराम तहावर सह्या झाल्या. १९६५ मध्ये त्यांना शांतता कार्याबद्दल रेमन मागसाय हा आंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिळाला. १९७० मध्ये त्यांनी बिहारच्या मुझफरपूर जिल्ह्यात दौरा काढून तेथील नक्षलवाद्यांचे हृदयपरिवर्तन करण्याचा प्रयत्न केला. १९७१ मध्ये त्यांनी बांगलादेशामधील परिस्थिती जगापुढे मांडण्यासाठी जागतिक दौरा केला आणि त्यावर्षी सप्टेंबर महिन्यात नवी दिल्ली येथे आंतरराष्ट्रीय परिषद भरविली; मे १९७२ मध्ये मध्यप्रदेशातील २६७ अट्टल दरोडेखोरांनी जयप्रकाशांच्या विनंतीवरून भारत सरकार व मध्य प्रदेश सरकार यांच्या पुढे शरणागती पत्करली.

         जयप्रकाशांनी संशोधन कार्य करणाऱ्या संस्थाही या काळात स्थापन केल्या. ‘असोशिएशन ऑफ व्हॉलंटरी एजन्सीज फॉर रूरल डेव्हलपमेंट’, ‘गांधीयन इन्स्टिट्यूट ऑफ स्टडीज’आणि‘अखिल भारतीय पंचायत परिषद’ या संस्थांचे ते अध्यक्ष किंवा मानसेवी संचालक होते. तसेच ‘काँग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ या वैचारिक व सांस्कृतिकस्वातंत्र्यास वाहिलेल्या आंतरराष्ट्रीय संस्थेचे ते एक संस्थापक व अनेक वर्षे मानसेवी अध्यक्ष होते.  ‘इंडियन कमिटी फॉर कल्चरल फ्रीडम’ या संस्थेचे सुरुवातीपासून ते सदस्य आहेत.

               प्रभावतीदेवी १५ एप्रिल १९७३ मध्ये निधन पावल्यानंतर जयप्रकाश यांची प्रकृती अधिकच खालावत गेली; त्यांना मधुमेहाचा व रक्तदाबाचा विकार जडला.

                    १९७० पासून भूदान आंदोलनाबद्दल त्यांना असमाधान वाटू लागले. भूदान आंदोलनात केवळ अनुनयावर भर आहे, पण त्यांतून फलनिष्पत्ती होत नाही, असे अनुभवासआल्यामुळे अनुनय अयशस्वी ठरला, तर गांधीप्रणीत अहिंसात्मक असहकार अथवा प्रतिकाराचा मार्ग स्वीकारला पाहिजे, अशी भूमिका ते घेऊ लागले. या प्रश्नावर आचार्यविनोबांशी त्यांचे मतभेद झाले. देशातील सर्वंकष भ्रष्टाचार, दुबळ्या घटकांच्या विकासाकडे झालेले दुर्लक्ष इ. प्रश्नांनी अस्वस्थ होऊन त्यांनी देशाला सर्वंकष क्रांतीची गरजआहे ही भूमिका घेतली व त्यानुरूप गुजरात राज्यातील राजकीय सत्तांतर व बिहारमधील आंदोलन यांचा पुरस्कार केला. २५ जून १९७५ पासून देशात आणीबाणी जाहीरझाली व त्यांना काही काळ स्थानबद्ध करण्यात आले. पुढे त्यांची प्रकृती बिघडल्याने त्यांची मुक्तता करण्यात आली. जयप्रकाश मार्क्सवाद, लोकशाही, समाजवाद या मार्गांनीसर्वोदयाकडे वळले होते. परंतु या सर्व विचारपरिवर्तनात त्यांचा क्रांतीवरील विश्वास ढळलेला नाही.

                          

         

महान क्रांतिकारी लाला हरदयाल

                                                                                 


  *महान क्रांतिकारी लाला हरदयाल*

    *जन्म : 14 अक्टूबर, 1884*

              (दिल्ली, भारत)

       *मृत्यु : 4 मार्च, 1939*

     (फिलाडेलफिया, अमेरिका)

अभिभावक : गौरीदयाल माथुर, भोली रानी

पत्नी : सुन्दर रानी

संतान : एक पुत्री

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : महान क्रांतिकारी

विद्यालय : कैम्ब्रिज मिशन स्कूल, सेण्ट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली, पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर, आक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय

शिक्षा : स्नातक, मास्टर ऑफ़ आर्ट्स (संस्कृत)

विशेष योगदान : ग़दर पार्टी की स्थापना की

                         लाला हरदयाल प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। लाला हरदयाल जी ने 'ग़दर पार्टी' की स्थापना की थी। विदेशों में भटकते हुए अनेक कष्ट सहकर लाला हरदयाल जी ने देशभक्तों को भारत की आज़ादी के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित किया।


📖 *शिक्षा*

लाला हरदयाल जी ने दिल्ली और लाहौर में उच्च शिक्षा प्राप्त की। देशभक्ति की भावना उनके अन्दर छात्र जीवन से ही भरी थी। मास्टर अमीर चन्द, भाई बाल मुकुन्द आदि के साथ उन्होंने दिल्ली में भी युवकों के एक दल का गठन किया था। लाहौर में उनके दल में लाला लाजपत राय जैसे युवक सम्मिलित थे। एम. ए. की परीक्षा में सम्मानपूर्ण स्थान पाने के कारण उन्हें पंजाब सरकार की छात्रवृत्ति मिली और वे अध्ययन के लिए लंदन चले गए।                               ⚜️ *पोलिटिकल मिशनरी*

लंदन में लाला हरदयाल जी भाई परमानन्द, श्याम कृष्ण वर्मा आदि के सम्पर्क में आए। उन्हें अंग्रेज़ सरकार की छात्रवृत्ति पर शिक्षा प्राप्त करना स्वीकार नहीं था। उन्होंने श्याम कृष्ण वर्मा के सहयोग से ‘पॉलिटिकल मिशनरी’ नाम की एक संस्था बनाई। इसके द्वारा भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न करते रहे। दो वर्ष उन्होंने लंदन के सेंट जोंस कॉलेज में बिताए और फिर भारत वापस आ गए।


📰 *सम्पादक*

हरदयाल जी अपनी ससुराल पटियाला, दिल्ली होते हुए लाहौर पहुँचे और ‘पंजाब’ नामक अंग्रेज़ी पत्र के सम्पादक बन गए। उनका प्रभाव बढ़ता देखकर सरकारी हल्कों में जब उनकी गिरफ़्तारी की चर्चा होने लगी तो लाला लाजपत राय ने आग्रह करके उन्हें विदेश भेज दिया। वे पेरिस पहुँचे। श्याम कृष्णा वर्मा और भीकाजी कामा वहाँ पहले से ही थे। लाला हरदयाल ने वहाँ जाकर ‘वन्दे मातरम्’ और ‘तलवार’ नामक पत्रों का सम्पादन किया। 1910 ई. में हरदयाल सेनफ़्राँसिस्को, अमेरिका पहुँचे। वहाँ उन्होंने भारत से गए मज़दूरों को संगठित किया। ‘ग़दर’ नामक पत्र निकाला।                                                  ✍️  *रचनाएँ*

Thoughts on Education

युगान्तर सरकुलर

राजद्रोही प्रतिबन्धित साहित्य(गदर,ऐलाने-जंग,जंग-दा-हांका)

Social Conquest of Hindu Race

Writings of Hardayal

Forty Four Months in Germany & Turkey

स्वाधीन विचार

लाला हरदयाल जी के स्वाधीन विचार

अमृत में विष

Hints For Self Culture

Twelve Religions & Modern Life

Glimpses of World Religions

Bodhisatva Doctrines

व्यक्तित्व विकास (संघर्ष और सफलता)

🙋🏻‍♂️ *ग़दर पार्टी*

ग़दर पार्टी की स्थापना 25 जून, 1913 ई. में की गई थी। पार्टी का जन्म अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को के 'एस्टोरिया' में अंग्रेजी साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से हुआ। ग़दर पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष सोहन सिंह भकना थे। इसके अतिरिक्त केसर सिंह थथगढ (उपाध्यक्ष), लाला हरदयाल (महामंत्री), लाला ठाकुरदास धुरी (संयुक्त सचिव) और पण्डित कांशीराम मदरोली (कोषाध्यक्ष) थे। ‘ग़दर’ नामक पत्र के आधार पर ही पार्टी का नाम भी ‘ग़दर पार्टी’ रखा गया था। ‘ग़दर’ पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेज़ों के द्वारा किए जा रहे अत्याचार की ओर दिलाया। नई पार्टी की कनाडा, चीन, जापान आदि में शाखाएँ खोली गईं। लाला हरदयाल इसके महासचिव थे।


💥 *सशस्त्र क्रान्ति*

                       प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर लाला हरदयाल ने भारत में सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहित करने के लिए क़दम उठाए। जून, 1915 ई. में जर्मनी से दो जहाज़ों में भरकर बन्दूक़ें बंगाल भेजी गईं, परन्तु मुखबिरों के सूचना पर दोनों जहाज़ जब्त कर लिए गए। हरदयाल ने भारत का पक्ष प्रचार करने के लिए स्विट्ज़रलैण्ड, तुर्की आदि देशों की भी यात्रा की। जर्मनी में उन्हें कुछ समय तक नज़रबन्द कर लिया गया था। वहाँ से वे स्वीडन चले गए, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के 15 वर्ष बिताए।                       

 🪔 *मृत्यु*

हरदयाल जी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कहीं से सहयोग न मिलने पर शान्तिवाद का प्रचार करने लगे। इस विषय पर व्याख्यान देने के लिए वे फिलाडेलफिया गए थे। 1939 ई. में वे भारत आने के लिए उत्सुक थे। उन्होंने अपनी पुत्री का मुँह भी नहीं देखा था, जो उनके भारत छोड़ने के बाद पैदा हुई थी, लेकिन यह न हो सका, वे अपनी पुत्री को एक बार भी नहीं देख सके। भारत में उनके आवास की व्यवस्था हो चुकी थी, पर देश की आज़ादी का यह फ़कीर 4 मार्च, 1939 ई. को कुर्सी पर बैठा-बैठा विदेश में ही सदा के लिए पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

                                                                                                                                                                                                                                                                  

  

अश्विनी कुमार दत्त


                       

            *अश्विनी कुमार दत्त*  

(राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और देश भक्त)

             *जन्म : 15 जनवरी, 1856*

                     (पूर्वी बंगाल)

             *मृत्यु : 7 नवम्बर, 1923*

नागरिकता : भारतीय

प्रसिद्धि : राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और देश भक्त

धर्म : हिंदू

शिक्षा : वकालत

अन्य जानकारी : ब्रह्म समाजी विचारों के अश्विनी कुमार दत्त 'गीता', 'गुरु ग्रंथ साहिब' और 'बाइबिल' का श्रद्धा के साथ पाठ करते थे।

                   अश्विनी कुमार दत्त भारत के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और देश भक्त थे। एक अध्यापक के रूप में उन्होंने अपना व्यावसायिक जीवन प्रारम्भ किया था। उन्होंने वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था।


💁🏻‍♂️ *जन्म तथा शिक्षा*

अश्विनी कुमार दत्त का जन्म का जन्म 15 जनवरी, 1856 ई. को बारीसाल ज़िला (पूर्वी बंगाल) में हुआ था। उनके पिता ब्रज मोहन दत्त डिप्टी कलक्टर थे, जो बाद में ज़िला न्यायाधीश भी बने थे। अश्विनी कुमार ने इलाहाबाद और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) से अपनी क़ानून की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक अध्यापक पद पर भी कार्य किया। बाद में वर्ष 1880 में बारीसाल से वकालत की शुरुआत की।


🌀 *सत्यनिष्ठ आचरण*

अश्विनी जी जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उस समय 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' का नियम था कि 16 वर्ष से कम उम्र के विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा में नहीं बैठ सकते। अश्विनी कुमार दत्त की इस परीक्षा के समय उम्र 14 वर्ष थी। किंतु जब उन्होंने देखा कि कई कम उम्र के विद्यार्थी 16 वर्ष की उम्र लिखवाकर परीक्षा में बैठ रहे हैं, तब उन्हें भी यही करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने आवेदन पत्र में 16 वर्ष की उम्र लिख दी और परीक्षा दी। इस प्रकार उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके ठीक एक वर्ष बाद जब अगली कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें अपने असत्य आचरण पर बहुत खेद हुआ। उन्होंने अपने कॉलेज के प्राचार्य से बात की और इस असत्य को सुधारने की प्रार्थना की। प्राचार्य ने उनकी सत्यनिष्ठा की बड़ी प्रशंसा की, किंतु इसे सुधारने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। अश्विनी कुमार का मन नहीं माना। अब अश्विनी कुमार विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से मिले, किंतु वहाँ से भी उन्हें यही जवाब मिला कि अब कुछ नहीं हो सकता। किंतु सत्य प्रेमी अश्विनी कुमार को तो प्रायश्चित करना था। इसलिए उन्होंने दो वर्ष झूठी उम्र बढ़ाकर जो लाभ उठाया था, उसके लिए दो वर्ष तक अपनी पढ़ाई बंद रखी और स्वयं द्वारा की गई उस गलती का उन्होंने प्रायश्चित किया।


🔰 *निसंतान*

अश्विनी कुमार दत्त के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने क्षेत्र के स्कूल जाने वाले सब बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार के लिए कुछ विद्यालय भी स्थापित किए।


⚜️ *राजनीतिक गतिविधियाँ*

1880 ई. से ही अश्विनी कुमार दत्त ने सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सर्वप्रथम उन्होंने बारीसाल में लोकमंच की स्थापना की। वर्ष 1886 में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। 1887 की अमरावती कांग्रेस में उन्होंने कहा- "यदि कांग्रेस का संदेश ग्रामीण जनता तक नहीं पहुँचा तो यह सिर्फ़ तीन दिन का तमाशा बनकर रह जाएगी।" उनके इन विचारों का प्रभाव ही था कि वर्ष 1898 में उनको पंडित मदनमोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि के साथ कांग्रेस का नया संविधान बनाने का काम सौपा गया था।


🔮 *विचार*

बंगाल विभाजन ने अश्विनी कुमार दत्त के विचार बदल दिए। वे नरम विचारों के राजनीतिज्ञ न रहकर उग्र विचारों के हो गए थे। वे लोगों के उग्र विचारों के प्रतीक बन गए। उनके शब्दों का बारीसाल के लोग क़ानून की भांति पालन करते थे। महान् क्रान्तिकारी विचारक एवं लेखक सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा लिखित क्रांतिकारी बांग्ला पुस्तक 'देशेर कथा' के बारे में अश्विनी कुमार ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि "इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्ट्र के युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो।"


⛓️ *जेल यात्रा*

बंगाल की जनता पर अश्विनी कुमार दत्त का बढ़ता हुआ प्रभाव अंग्रेज़ सरकार को सहन नहीं हुआ। सरकार ने उन्हें बंगाल से निर्वासित करके 1908 में लखनऊ जेल में बंद कर दिया। सन 1910 में वे जेल से बाहर आ सके। अब वे विदेशी सरकार से किसी प्रकार का सहयोग करने के विरुद्ध थे। उन्होंने महात्मा गाँधी के 'असहयोग आंदोलन' का भी समर्थन किया।


🪔 *निधन*

ब्रह्म समाजी विचारों के अश्विनी कुमार दत्त 'गीता', 'गुरु ग्रंथ साहिब' और 'बाइबिल' का श्रद्धा के साथ पाठ करते थे। वे समाज सुधारों के पक्षधर थे और छुआछूत, मद्यपान आदि का सदा विरोध करते रहे। अपने समय में पूर्वी बंगाल के बेताज बादशाह माने जाने वाले अश्विनी कुमार दत्त का 7 नवम्बर, 1923 ई. में देहांत हो गया।              

                                                                                                                                                        

         

महादेव गोविंद रानडे

                          

      

          *महादेव गोविंद रानडे*

(भारतीय विद्वान, समाज सुधारक आणि लेखक)


    *जन्म : १८ जानेवारी १८४२*

     (निफाड, नाशिक, महाराष्ट्र)

    *मृत्यू : १६ जानेवारी १९०१*


टोपणनाव: न्यायमुर्ती रानडे.

चळवळ: समाजसुधारणा

संघटना: राष्ट्रिय सामाजिक परीषद 

             ( स्थापना - १८८५)

पत्रकारिता/ लेखन: सुबोध (पत्रीका) , सुधारक (व्रृत्तपत्र).

धर्म: हिंदू

प्रभाव: महात्मा फुले.

वडील: गोविंद रानडे

महादेव गोविंद रानडे हे महाराष्ट्रातील थोर समाजसुधारक होते, तसेच अर्थशास्त्रज्ञ व ब्रिटिश भारतामधील न्यायाधीश होते. इ.स. १८७८ साली पुणे येथे झालेल्या पहिल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनचे ते अध्यक्षही होते.१८८५ मध्ये मुंबई उच्च न्यायालया चे न्यायमुर्ती म्हनून त्यांची निवड झाली.


न्या.रानडे यांना आधुनिक भारताच्या इतिहासात महाराष्ट्रातील समाजसुधारणा चळवळीत महत्त्वाचे स्थान आहे. शिक्षणाचा प्रसार व्हावा, स्त्रीयांनाही शिक्षण घेता यावे यासाठी मुलींच्या शाळा सुरू केल्या.त्यांनी शिक्षण, समाजसेवा, राजकारण तसेच आर्थिक बाबतीत अमुल्य कार्य केले.


💁‍♂ *जीवन*

           महादेव गोविंद रानडे यांचा जन्म नाशिकमधील निफाड या गावी झाला. त्यांचे प्राथमिक शिक्षण कोल्हापुरात झाले. त्यांना शालेय आयुष्यात विनायक जनार्दन कीर्तने यांची मैत्री लाभली आणि पुढे ती वाढली. लहानपणी माधवराव अबोल आणि काहीसे संथ होते. मात्र त्यांची तीव्र स्मरणशक्ती, सामाजिक भान इतरांच्या लक्षात आले होते. १८५६नंतर ते आणि कीर्तने मुंबईत शिक्षणासाठी आले, एल्फिन्स्टन हायस्कूलमध्ये दाखल झाले. त्यांचे इंग्रजी-संस्कृत भाषांमधील वाचन वाढले. लॅटिनचाही त्यांनी अभ्यास केला. मॅट्रिकच्या परीक्षेसाठी त्यांनी 'मराठेशाहीचा उदय आणि उत्कर्ष' या विषयावर निबंध लिहिला. पुढच्या काळात त्यांनी त्याच नावाचे पुस्तक लिहिले. अफाट वाचनाने त्यांची बुद्धी प्रगल्भ झाली होती. त्यामुळे त्यांना शिष्यवृत्ती मिळे; बक्षिसेही मिळत. १८६२(?) साली ते मॅट्रिक तर १८६४ साली एम. ए. झाले. त्या वेळी अलेक्झांडर ग्रॅन्ट यांचा सहवास आणि मार्गदर्शन त्यांना लाभले. या काळात माधवरावांनी विविध विषयांवर निबंधलेखन केले. इतिहास आणि अर्थशास्त्र हे त्यांचे आवडीचे विषय राहिले आणि त्यात त्यांनी अधिकारही प्राप्त केला होता. त्यांनी अध्यापन, परीक्षण, अनुवाद, न्यायदान अशा कामांमध्ये आपल्या बुद्धीची चमक दाखवली. त्यांनी इतिहास हा विषय घेऊन एम. ए. केले. इ.स. १८६६ साली ते कायद्याची परीक्षा उत्तीर्ण झाले. मुंबई विद्यापीठाचे पहिले भारतीय फेलो म्हणून त्यांची निवड झाली.


न्यायमूर्ती रानडे यांना एल्फिन्स्टन महाविद्यालयात कनिष्ठ असलेले दिनशा वाच्छा रानडे यांबद्दल लिहितात :-


“ते महाविद्यालयाच्या वाचनालयात अभ्यास करण्यांत कसे रमून जात ते मला नीट स्मरतं. महाविद्यालयाचा अभ्यास शिष्यवृत्तीसाठीच्या परीक्षेसाठी तयारी करणं तर त्यांना मुलांच्या खेळासारखे वाटे. कठीणात कठीण पुस्तक ते इतक्या सहजगत्या समजून घेत असत आणि ज्ञान प्राप्त करत. ज्ञान प्राप्तीची अहमनीय उत्कंठा आणि पुस्तकाच्या विषयाला हृदयंगम करण्याची क्षमता इतकी महान होती की ते दिवसभर पुस्तक वाचत असत. ते पुस्तके वारंवार वाचत. एवढा विस्तृत अभ्यास करायला आमच्यापैकी कुणातही ना धैर्य होतं ना शक्ती, ना एवढी उत्कंठा! ते वाचण्यात एवढे तल्लीन होऊन जात की आजूबाजूला काय चालले आहे याकडे त्यांचे लक्षही जात नसे. खाण्यापिण्याकडे किंवा कपड्याकडे त्यांनी कधीही चौकसपणे लक्ष दिले नाही. काहीही खात, काहीही कपडे घालत.” 


👫🏻 *विवाह*

             म.गो. रानडे यांचा पहिला विवाह १८५१ साली वयाच्या ११-१२व्या वर्षी वाईतील दांडेकरांच्या रमा नावाच्या मुलीशी झाला. ही पत्नी आजारी पडली आणि तिचे १८७३ साली निधन झाले. माधवरावांचे विधवांच्या पुनर्विवाहासंबंधीचे विचार आणि त्या चळवळीतील त्यांचा सहभाग लक्षात घेता ते एखाद्या विधवेशी लग्न करतील अशी अटकळ त्यांच्या वडिलांनी बांधली आणि त्या सालच्या नोव्हेंबरच्या ३० तारखेला अण्णासाहेब कुर्लेकर यांच्या कन्येशी त्यांनी माधवरावांचा विवाह करून दिला. लग्नानंतर माधवरावांनी या पत्नीचे नावही रमा असेच ठेवले. माधवरावांची त्या काळात 'बोलके सुधारक' म्हणून सनातन्यांकडून संभावनाही झाली. विधवाविवाहाची हाती आलेली संधी आपण दवडली म्हणून ते दु:खी झाले, पण पुढे त्यांनी रमाबाईंना शिकवले.


⚖ *न्यायाधीशी*

           काही काळ त्यांनी शिक्षक, संस्थानाचे सचिव, जिल्हा न्यायाधीश म्हणून विविध ठिकाणी काम केले. इ.स. १८९३ साली मुंबई उच्च न्यायालयाचे न्यायाधीश म्हणून त्यांची नेमणूक करण्यात आली.


⚜ *सार्वजनिक कार्य*

          ज्ञानप्रसारक सभा, परमहंस सभा, प्रार्थना समाज, सार्वजनिक सभा, भारतीय सामाजिक परिषद इत्यादी विविध संस्था स्थापन करण्यात व त्यांचा विस्तार करण्यात त्यांचा प्रमुख सहभाग होता. ‘अनेक क्षेत्रांतील संस्था स्थापन करून त्यांनी भारतात संस्थात्मक जीवनाचा पाया घातला,’ असे त्यांच्याबद्दल गौरवाने म्हटले जाते. रानडे यांनी स्वातंत्र्यासाठी व सामाजिक सुधारणांसाठी कायम घटनात्मक व सनदशीर मार्गांचा पुरस्कार केला. स्वातंत्र्यपूर्व काळातील ‘मवाळ’ प्रवाहाचे ते नेते होते. त्यांनी भारतीय राजकारणात अर्थशास्त्रीय विचार आणला. स्वदेशीच्या कल्पनेला त्यांनी शास्त्रशुद्ध व व्यावहारिक स्वरूप दिले. त्यांनी भारतातील दारिद्ऱ्याच्या प्रश्नाचे मूलभूत विवेचन करून येथील दारिद्ऱ्याची कारणे व ते दूर करण्याचे उपाय यासंबंधी अभ्यासपूर्ण विचार मांडले.


भारतीय समाजात संकुचित वृत्ती; जातिभेदांचे पालन; भौतिक सुखे, व्यावसायिकता व व्यावहारिकता यांविषयाचे गैरसमज यांसारखे दोष निर्माण झाल्यामुळे समाजाची मोठ्या प्रमाणात हानी झाली आहे. हे दोष दूर करूनच आपल्या समाजाची प्रगती साधता येईल असे त्यांचे ठाम मत होते. समाजाची राजकीय किंवा आर्थिक उन्नती घडवून आणायची असेल, तर सामाजिक सुधारणेकडे लक्ष पुरविले पाहिजे. "ज्याप्रमाणे गुलाबाचे सौंदर्य व सुगंध हे जसे वेगळे करता येत नाहीत, त्याप्रमाणे राजकारण व सामाजिक सुधारणा यांची फारकत करता येत नाही" असे त्यांचे मत होते. हे विचार त्यांनी समाजसुधारणा चळवळीच्या अगदी सुरुवातीच्या काळात मांडल्यामुळे त्यांना ‘भारतीय उदारमतवादाचे उद्गाते’, असेही म्हटले जाते.


🏦 *संस्था*

                 दिनांक ३१ मार्च, इ.स. १८६७ रोजी न्यायमूर्ती रानडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, डॉ. रा. गो. भांडारकर, वामन आबाजी मोडक इत्यादी मंडळींनी पुढाकार घेऊन मुंबईत ‘प्रार्थना समाजा’ची स्थापना केली. त्याआधी इ.स. १८७१ साली रानडे यांचा सार्वजनिक सभेच्या स्थापनेशी व कार्याशी संबंध आला होताच. सामाजिक प्रश्नांचे महत्त्व लक्षात घेऊन, समाजसुधारणांसाठी रानडे यांनी पुढाकार घेऊन ‘भारतीय सामाजिक परिषदेची' स्थापना केली. या परिषदेचे ते १४ वर्षे महासचिव होते. जातिप्रथेचे उच्चाटन, आंतरजातीय विवाहांस परवानगी, विवाहाच्या वयोमर्यादेत वाढ, बहुपत्नीकत्वाच्या प्रथेस आळा, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री-शिक्षण, तथाकथित जाति-बहिष्कृत लोकांच्या स्थितीत सुधारणा, हिंदू-मुसलमानांच्या धार्मिक मतभेदांचे निराकरण अशा या संस्थेच्या मागण्या होत्या. भारताच्या स्वातंत्र्यात पुढे मध्यवर्ती भूमिका बजावणाऱ्या ‘राष्ट्रीय काँग्रेस’ या संघटनेच्या स्थापनेतही (इ.स. १८८५) न्यायमूर्ती रानडे यांचा मोठा सहभाग होता.


                   न्यायमूर्ती रानडे यांनी वक्तृत्वोत्तेजक सभा (हीच संस्था पुणे शहरात दरवर्षी, वसंत व्याख्यानमाला आयोजित करते), नेटिव्ह जनरल लायब्ररी, फीमेल हायस्कूल, मुलींच्या शिक्षणासाठी हुजूरपागा शाळा, इंडस्ट्रियल असोसिएशन ऑफ वेस्टर्न इंडिया, इत्यादी अनेक संस्था पुढाकार घेऊन स्थापन केल्या. मराठी ग्रंथकार संमेलन सर्वप्रथम त्यांच्याच प्रयत्नांमुळे यशस्वी ठरले होते. त्यातूनच पुढे साहित्य संमेलन योजण्याची प्रथा सुरू झाली. न्यायमूर्ती रानडे हे स्वतः उत्तम संशोधक, विश्लेषक होते हे त्यांच्या द राइझ ऑफ मराठा पॉवर (मराठी सत्तेचा उदय) या ग्रंथावरून दिसून येते. त्यांच्या व्याख्यानांचे संग्रहही पुढील काळात प्रकाशित झाले.


⛲ *लोकांचा रोष*

                     विष्णुबुवा ब्रह्मचारी, करसनदास मुलजी, भाऊ दाजी, रावसाहेब मंडलिक, विष्णुशास्त्री पंडित, सार्वजनिक काका आणि पंडिता रमाबाई यांच्या बरोबरीने आणि सहकार्याने माधवरावांनी विधवांच्या पुनर्विवाहाचा प्रश्न, संमतीवयाचा कायदा यांसारख्या अनेक समाजसुधारणांकरिता अथक प्रयत्न केले. परंतु स्वामी दयानंद सरस्वती, वासुदेव बळवंत फडके, पंचहौद मिशन, रखमाबाई खटला या व्यक्ती वा घटनांच्या संदर्भांत त्यांना टीका सहन करावी लागली. त्या काळात समाजसुधारकांना फार विरोध होई. माधवरावांच्या या समाजसुधारकी कामालाही सनातनी वर्गाकडून सतत विरोध झाला. माधवरावांनी तो विरोध सहनशीलतेने आणि समजुतीने हाताळला.


💎 *सरकारी रोष*

   माधवरावांच्या समाजकारणाच्या प्रारंभी अलेक्झांडर ग्रॅन्ट, सर बार्टल फ्रियर, बेडरबर्न यांच्या काळातील सरकारचा विश्वास त्यांनी अनुभवला. पण पुढे क्रांतिकारकांचे, पेंढाऱ्यांचे बंड, दुष्काळ आणि तत्कालीन सरकारविरोधी घटनांत माधवरावांचा हात असल्याचा संशय सरकारला येऊ लागला. त्याचा परिणाम म्हणून त्यांची बदली १८७९ साली धुळे येथे झाली आणि त्याचबरोबर त्यांच्या टपालावर नजर ठेवण्यात येऊ लागली. म्हणून गणेशशास्त्री लेले या मित्राने त्यांना नोकरीतून निवृत्ती स्वीकारण्याचा सल्ला दिला. माधवरांवांनी हा सल्ला मानला नाही, आणि पुढे यथावकाश सरकारचा संशय दूर झाला.


🏢 *मुंबई विद्यापीठात मराठी भाषेसाठी प्रयत्न*


🌀 *पार्श्वभूमी*

                  ईस्ट इंडिया कंपनीच्या संचालकांनी त्या त्या प्रांतातील शिक्षणाची व्यवस्था लावण्यासाठी १८४०मध्ये प्रांतनिहाय शिक्षणमंडळे (बोर्ड ऑफ एज्युकेशन) स्थापन केली. त्यांपैकी मुंबई प्रांताच्या शिक्षणमंडळाचे अध्यक्ष सर आर्स्किन पेरी ह्यांनी मंडळाच्या सभेत "उच्च शिक्षण देणाऱ्या सर्व संस्थांत शिक्षणाचे माध्यम केवळ इंग्लिश हेच असेल" असा ठराव मांडला. (त्यावेळी महाविद्यालये अथवा विद्यापीठ नसल्याने उच्चशिक्षण ह्या संज्ञेचा अर्थ माध्यमिक शाळांतील शिक्षण असा होता. ह्या ठरावाला तीन भारतीय सदस्य आणि कर्नल जार्विस ह्यांनी विरोध केला. त्यामुळे पेरी ह्यांचा ठराव लगेच मान्य झाला नाही. परंतु कलकत्ता येथील वरिष्ठ अधिकाऱ्यांनी तो मान्य केल्यामुळे मुंबई प्रांतातील सर्व माध्यमिक शाळांतून (तत्कालीन चवथी ते सातवी (मॅट्रिक)) ह्या वर्गांत मराठी भाषा वगळता अन्य सर्व विषय मातृभाषेऐवजी इंग्लिशमधून शिकवण्यात येऊ लागले.


चार्ल्स वुड ह्यांच्या मार्गदर्शनानुसार मुंबई प्रांतातील शिक्षणविषयक व्यवस्थापनाची एक संहिता १८५४ मध्ये तयार करण्यात आली. तिच्यातील एका कलमात शिक्षणव्यवस्थेत देशी भाषांना उत्तेजन देण्याचे कलम असले तरी त्यावर प्रत्यक्षात कार्यवाही झाली नव्हती.


१८५७ ह्या वर्षी मुंबई विद्यापीठ स्थापन झाले तेव्हा मराठी हा विषय मॅट्रिक ते एम. ए.पर्यंतच्या सर्व परीक्षांना वैकल्पिक म्हणून घेण्याची सोय होती. पण १८५९ ह्या वर्षी झालेल्या विद्यापीठाच्या पहिल्या मॅट्रिक परीक्षेत मुंबई प्रांतातून परीक्षेला बसलेल्या १३२ विद्यार्थ्यांपैकी केवळ २२ विद्यार्थी उत्तीर्ण झाले आणि अनुत्तीर्ण झालेल्या ११० विद्यार्थ्यांपैकी ८९ विद्यार्थी हे मराठी इ. देशी भाषांत अनुत्तीर्ण झाले होते. ह्या प्रकाराची पुनरावृत्ती १८६२ पर्यंत होत राहिल्याने २९ नोव्हेंबर १८६२ रोजी विद्यापीठाच्या कार्यकारी मंडळापुढे (सिंडिकेट) विद्यापीठाचे कुलगुरू सर अलेक्झँडर ग्रँट ह्यांनी मॅट्रिक्युलेशननंतर विद्यापीठात केवळ अभिजात भाषाच (उदा. संस्कृत, अरबी, हीब्रू, ग्रीक, लॅटिन) शिकवण्यात याव्यात असा ठराव मांडला. ह्या ठरावाला डॉ. एम. मरे आणि डॉ. जॉन विल्सन ह्यांनी विरोध केला. पण हा ठराव १८६३मध्ये मान्य झाला. त्यामुळे मॅट्रिक ते एम. ए. ह्या सर्व स्तरावर मराठी भाषेचे अध्ययन-अध्यापन बंद झाले.


🔮 *रानडे ह्यांचे प्रयत्न*

        १८७० ते १८८७ ह्या काळात मराठीला विद्यापीठात स्थान मिळावे ह्यासाठी जनमत तयार करण्यासाठी रानडे ह्यांनी प्रयत्न केले.


'विद्यापीठ आणि देशी भाषा' ह्या विषयावर श्री. ग. त्र्यं. जोशी ह्यांना निबंध लिहिण्यास प्रवृत्त करून त्या निबंधाचे सार्वजनिक सभेत प्रकट वाचन करवणे व चर्चा करणे

जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी ह्या संस्थेच्या नियतकालिकातून ह्या विषयावर लेखन

मुंबईच्या टाइम्स ऑफ इंडिया ह्या वृत्त पत्रातून ह्या विषयावर लेखन

तसेच देशी भाषांत प्रकाशित होणाऱ्या पुस्तकांचा आढावा घेण्यासाठी मुंबईच्या शासनाने नेमलेल्या रजिष्ट्रार ऑफ नेटिव्ह पब्लिकेशन्स ह्या अघिकाऱ्याशी संपर्क साधून त्या वर्षीच्या अहवालात देशी भाषांत पुस्तके प्रकाशित होण्याचे प्रमाण कमी असण्याचे कारण विद्यापीठात ह्या भाषांना स्थान नसणे हे असल्याचे रानडे ह्यांनी नोंदवून घेतले. ह्यावर तत्कालीन भारतमंत्र्यांनी मुंबईच्या गव्हर्नरांना ह्या प्रकरणी लक्ष घालण्याची सूचना केल्याने विद्यापीठाच्या कार्यकारी सभेत (सिंडिकेट) ह्या विषयावर चर्चा झाली. रानडे ह्यांच्या प्रयत्नांना यश आले नाही. 


१८९७ ह्या वर्षी रानडे ह्यांनी मराठी आणि इतर देशी भाषा ह्यांच्या पुरस्कर्त्यांच्या सह्यांसह पुन्हा एक अर्ज कार्यकारी सभेपुढे मांडला. पण त्यावर चर्चा होऊन ती अनिर्णित राहिली. रानडे ह्यांनी विद्यापीठाच्या फॅकल्टी ऑफ आर्ट ह्या मंडळापुढे तो ठराव मांडण्याचा प्रयत्न केला पण त्यालाही पाठिंबा मिळाला नाही. 


१९०० ह्या वर्षी मुंबई प्रांताच्या शिक्षणसंचालकांनी ह्या प्रश्नी विद्यापीठाला पत्र लिहून विचार करण्याची सूचना केली असता बी. ए. आणि एम. ए. ह्या परीक्षांना नेमण्यासाठी देशी भाषांतील पुस्तके सुचवण्यासाठी समिती नेमण्यात आली. समितीने मराठीतील अशा पुस्तकांची यादी सादर केल्यावर २९ जानेवारी १९०१ ह्या दिवशी (रानडे ह्यांच्या मृत्यूनंतरच्या १३ व्या दिवशी) सिनेटच्या बैठकीत विद्यापीठाच्या परीक्षांत देशी भाषांचा समावेश करण्याचा प्रस्ताव मांडण्यात आला. हा प्रस्ताव मांडणारे सदस्य चिमणलाल सेटलवाड ह्यांनी रानडे ह्यांच्या निधनाने झालेल्या हानीचा उल्लेख करून सदर प्रस्तावासंदर्भात रानडे आणि आपण ह्यांच्यात झालेल्या संभाषणाचा उल्लेखही केला. ह्या सभेत हा प्रस्ताव बहुमताने संमत करण्यात आला. त्यायोगे मॅट्रिकप्रमाणे एम.ए.च्या परीक्षेतही मराठी हा विषय विकल्पाने उपलब्ध करून देण्यात आला. मात्र मराठीची प्रश्न पत्रिका इंग्लिशमधून काढण्यात येणार होती आणि उत्तरेही इंग्लिशमध्येच देण्याची अट होती.


⏳ *निधन*

             रानडे यांनी १६ जानेवारी १९०१च्या रात्री जस्टीन मेकार्थी याचे ‘हिस्ट्री ऑफ अवर ओन टाईम्स’ हे पुस्तक वाचायला घेतले आणि पुस्तक वाचायला बसले नाहीत तोवर त्यांना त्रास सुरु झाला व त्यांची जीवनयात्रा संपली. 


📚 *म.गो. रानडे यांनी लिहिलेली किंवा ?*त्यांच्यासंबंधी लिहिली गेलेली पुस्तके*


न्या. म. गो. रानडे व्यक्ति कार्य आणि कर्तृत्व (१९९२-त्र्यंबक कृष्ण टोपे)

मराठेशाहीचा उदय आणि उत्कर्ष (१९६४-म.गो. रानडे)

पुनरुत्थानाचे अग्रदूत - म.गो. तथा माधवराव रानडे यांचे चरित्र (२०१३-ह.अ. भावे)

आमच्या आयुष्यातील काही आठवणी (१९१०-रमाबाई रानडे)

न्यायमूर्ती महादेव गोविंद रानडे चरित्र (१९२४-न.र. फाटक)

रानडे-प्रबोधन पुरुष (२००४-डॉ. अरुण टिकेकर)

Mahadev Govind Ranade (इंग्रजी १९६३-टी.व्ही. पर्वते)

Mr. Justice M. G. Ranade : A Sketch of the Life and Work. (इंग्रजी-जी.ए.मानकर).

Ranade : The Prophet of Liberated India (इंग्रजी १९४२-डी.जी. कर्वे).

मन्वंतर - (२००९-गंगाधर गाडगीळ)

Mahadev Govind Ranade : A Biography Of His Vision And Ideas (इंग्रजी १९९८-वेरिंदर ग्रोवर)

    

         

Scolarship navoday pariksha test 131-140

 स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 231

https://www.vkbeducation.com/2024/11/231.html


स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 232

https://www.vkbeducation.com/2024/11/232.html


स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 233

https://www.vkbeducation.com/2024/11/233.html


Scholarship Navodaya exam test 234

https://www.vkbeducation.com/2024/11/scholarship-navodaya-exam-test-234.html


Scholarship Navodaya exam test 235

https://www.vkbeducation.com/2024/11/scholarship-navodaya-exam-test-234_23.html


स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 236

https://www.vkbeducation.com/2024/11/236.html


स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 237

https://www.vkbeducation.com/2024/11/237.html


स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 238

https://www.vkbeducation.com/2024/11/238.html


Scholarship Navodaya exam test 240

https://www.vkbeducation.com/2024/12/scholarship-navodaya-exam-test-240.html


स्कॉलरशिप नवोदय परीक्षा टेस्ट 239

https://www.vkbeducation.com/2024/12/239.html

महाराष्ट्र राज्य पालकमंत्री 2024

 पालकमंत्र्यांची संपूर्ण यादी..

गडचिरोली – देवेंद्र फडणवीस

नागपूर – चंद्रशेखर बावनकुळे

ठाणे – एकनाथ शिंदे

पुणे – अजित पवार

बीड – अजित पवार

सिंधुदुर्ग- नितेश राणे

अमरावती – चंद्रशेखर बावनकुळे

अहिल्यानगर – राधाकृष्ण विखे पाटील

वाशिम – हसन मुश्रीफ

सांगली – चंद्रकांत पाटील

सातारा -शंभुराजे देसाई

छत्रपती संभाजी नगर – संजय शिरसाट

जळगाव – गुलाबराव पाटील

यवतमाळ – संजय राठोड

कोल्हापूर – प्रकाश आबिटकर, सह पालकमंत्री माधुरी मिसाळ

अकोला – आकाश फुंडकर

भंडारा – संजय सावकारे

बुलढाणा – मकरंद जाधव

चंद्रपूर – अशोक ऊईके

धाराशीव – प्रताप सरनाईक

धुळे – जयकुमार रावल

गोंदिया – बाबासाहेब पाटील

हिंगोली – नरहरी झिरवळ

लातूर – शिवेंद्रसिंग भोसले

मुंबई शहर – एकनाथ शिंदे

मुंबई उपनगर -आशिष शेलार/ सह पालकमंत्री मंगलप्रभात लोढा

नांदेड – अतुल सावे

नंदुरबार – माणिकराव कोकाटे

नाशिक – गिरीष महाजन

पालघर – गणेश नाईक

परभणी – मेघना बोर्डीकर

रायगड – अदिती तटकरे

सिंधुदुर्ग- नितेश राणे

रत्नागिरी – उदय सामंत

सोलापूर – जयकुमार गोरे

वर्धा – पंकज भोयर

जालना – पंकजा मुंडे

सामान्य ज्ञान 3

 सूर्यमालेतील imp माहिती देत आहे .



1)  सुर्यमालेतील सर्वात लहान ग्रह कोणता ?

✅️  बुध



2)  सुर्यमालेतील सर्वात तेजस्वी ग्रह कोणता ?

✅️ शुक्र



3) सुर्यमालेतील सर्वात मोठा ग्रह कोणता ?

✅️  गुरू



4) कोणत्या ग्रहाला पहाट तारा असेही म्हणतात ?

✅️ शुक्र



5) जलग्रह म्हणून कोणत्या ग्रहाला ओळखले जाते ?

✅️ पृथ्वी



6) सजीव सृष्टी असलेला सूर्यमालेतील एकूण ग्रह कोणता ?

✅️ पृथ्वी 



 7) पृथ्वीच्या सर्वात जवळचा ग्रह कोणता ?

✅️ शुक्र



8) सर्यमालेतील सर्वात जवळचा ग्रह कोणता ?

✅️ बुध



 9) पृथ्वीच्या स्वतःभोवती फिरण्याच्या गतीस काय म्हणतात ?

✅️ परिवलन



10) पृथ्वीच्या सूर्याभोवती फिरण्याच्या गतीस काय म्हणतात ?

✅️ परिभ्रमण



11) सर्वाधिक गुरुत्वाकर्षण असलेला ग्रह कोणता ?

✅️ गुरू



12) सर्यमालेतील सर्वात वेगवान ग्रह कोणता ?

✅️ बुध



13) सुर्यमालेतील सर्वात तप्त ग्रह कोणता ?

✅️ शुक्र



14) मंगळाच्या दोन उपग्रहांची नावे कोणती ?

✅️ फोबॉस आणि डीमॉस



15) कोणत्या ग्रहाला लाल ग्रह म्हणून ओळखले जाते ?

✅️ मंगळ



16) गुरु ग्रह पृथ्वीच्या तुलनेत किती पटीने मोठा आहे ?

✅️ 1397 पटीने



17) कोणत्या ग्रहास वादळी ग्रह म्हणून ओळखले जाते ?

✅️ गुरू



18) सुर्यमालेतील सर्वात मोठा उपग्रह कोणता ?

✅️ गुरु



19)सर्यमालेतील सर्वाधिक उपग्रह असलेला ग्रह कोणता ?

✅️ शनि



20) युरेनस ग्रह कोणत्या नावाने ओळखला जातो ?

✅️ प्रजापती



21) गुरु ग्रह कोणत्या नावाने ओळखला जातो ?

✅️ ब्रुहस्पति



22) नेपच्यून ग्रह कोणत्या नावाने ओळखला जातो ?

✅️ वरून



23) नेपच्यून ग्रहावरील एक ऋतु किती वर्षाचा असतो ?

✅️ 41 वर्ष



24) सुर्यमालेतील ग्रह व त्यांची उपग्रहांची संख्या ?

✅️ पृथ्वी      - 01

✅️ मंगळ     - 02

✅️ गुरु        - 79

✅️ शनि     - 82

✅️ युरेनस   - 27

✅️ नेपच्यून - 14



25) सुर्यमालेतील कोणत्या ग्रहाला उपग्रह नाहीत ?

✅️ बुध व शुक्र

 


26) सुर्यमालेतील एकूण ग्रहांची संख्या किती आहे ?

✅️ आठ



27)  सुर्याचे पृथ्वीपासूनचे अंतर किती आहे ?

✅️ 14 कोटी 96 लाख कि. मी.



 28) चंद्राचे पृथ्वीपासूनचे अंतर किती आहे ?

✅️ 3 लाख 84 हजार कि. मी.



29) सुर्य किरणे पृथ्वीवर येण्यास किती वेळ लागतो ?

✅️ 8 मिनिटे 20 सेकंद



30) चंद्रप्रकाश पृथ्वीवर पोहोचण्यास किती कालावधी लागतो ?

✅️ 1.3 सेकंद



31) सुर्याच्या पृष्ठभागाचे तापमान किती आहे ?

✅️ 6000⁰ c 



32) चंद्रा प्रमाणेच कोणत्या ग्रहाच्या कला दिसून येतात ?

✅️ शुक्र



33) चंद्र रोज मागच्या दिवसापेक्षा किती मिनिटे उशिरा उगवतो ?

✅️ 50 मिनिटे


 

34) पृथ्वीवरून चंद्राचा किती टक्के पृष्ठभाग दिसतो ?

✅️ 59 %



35) पृथ्वीच्या परिवलन कालावधी किती आहे ?

✅️ 23 तास, 56 मिनिटे, 4 सेकंद



36) पृथ्वीच्या परिभ्रमणाचा कालावधी किती आहे ?

✅️ 365 दिवस, 5 तास, 48 मिनिटे 54 सेकंद



 37) पृथ्वीचा आकार कशा प्रकारचा आहे ?

✅️ ध्रुवाकडील बाजूस चपटी व विषुववृत्तलगत फुगीर (जिओइड)



38) युरेनस या ग्रहाचा शोध कोणत्या खगोल शास्त्रज्ञाने लावला ?

✅️ विल्यम हर्ष ..

सामान्य ज्ञान 1



 *प्रश्न.1) राष्ट्रीय बाल पुरस्कार 2024 साठी किती मुलांची निवड करण्यात आली आहे ?*


*उत्तर -* 17 


 *प्रश्न.2) राष्ट्रीय बाल पुरस्कार 2024 मध्ये महाराष्ट्र राज्यातील किती मुलांचा सामावेश आहे ?*


*उत्तर -* 2


 *प्रश्न.3) भारत देशाच्या महसूल सचिव पदी कोणाची निवड करण्यात आली आहे ?*


*उत्तर -* आरूनिश चावला


 *प्रश्न.4) भारत सीमेवर कोणत्या नदीवर चीन जगातील सर्वात मोठे धरण बांधणार आहे ?*


*उत्तर -* ब्रह्मपुत्रा (तिबेट) 


 *प्रश्न.5) वॉल स्ट्रीट जर्नलने 2025 साठी कोणत्या राज्याला ग्लोबल डेस्टिनेशन म्हणून नाव दिले आहे ?*


*उत्तर -* मध्य प्रदेश 


 *प्रश्न.6) एसाके वालू एके यांची कोणत्या देशाच्या पंतप्रधानपदी निवड झाली आहे ?*


*उत्तर -* टोंगा 


*प्रश्न.7) मनिका जैन यांची कोणत्या देशातील भारताचे राजदूत म्हणून निवड झाली आहे ?*


उत्तर - माल्डोवा


 *प्रश्न.8) कोणत्या केंद्रीय मंत्रालयाने राष्ट्रपर्व वेबसाईट आणि मोबाईल ॲप चा शुभारंभ केला आहे ?*

*उत्तर -* संरक्षण मंत्रालय 


*प्रश्न.9) कोणता देश सर्वाधिक वृद्ध व्यक्तींचा देश बनला आहे ?*


*उत्तर -* दक्षिण कोरिया


 *प्रश्न.10) वासुदेवन नायर यांचे नुकतेच निधन झाले आहे ते कोण होते ?*


*उत्तर -* लेखक

ग्रामीण डाक सेवक भरती 2025

 

डाक सेवक भरतीला सुरुवात झाली आहे. GDS ने या भरतीचे आयोजन केले आहे. नोकरीच्या शोधात असणाऱ्या उमेदवारांसाठी ही भरती एक सुवर्णसंधी आहे. 


ग्रामीण डाक सेवक पदासाठी आयोजित ही भरती ३ मार्च २०२५ पासून सुरु होणार आहे. अर्ज ऑनलाईन स्वरूपात करायचे आहे. अर्ज करण्यासाठी उमेदवारांनी

  indiapostgdsonline.gov.in

या अधिकृत संकेतस्थळाला भेट द्यावी. मुळात, उमेदवारांना एका ठराविक मुदतीपर्यंत या भरतीसाठी अर्ज करता येणार आहे. या भरतीतही २८ मार्च २०२५ पर्यंत अर्ज करता येणार आहे. चला तर मग जाणून घेऊयात, या भरतीच्या संदर्भात पात्रता निकषांसंदर्भात:

भरतीसाठी अर्ज करणारे उमेदवारांना काही अटी शर्ती पात्र कराव्या लागणार आहेत. या अटी शर्ती शैक्षणिक असावेत, तसेच उमेदवारांना वयोमर्यादेसंदर्भात अटी शर्ती पात्र करावे लागणार आहेत. या अटी शर्ती जाहीर अधिसूचनेमध्ये नमूद आहेत. एकंदरीत, किमान १८ वर्षे आयु असणारे उमेदवार या भरतीसाठी अर्ज करू शकतात. तर जास्तीत जास्त ४० वर्षे आयु असणारे उमेदवार या भरतीसाठी अर्ज करू शकतात. आरक्षित प्रवर्गातून येणाऱ्या उमेदवारांच्या वयोमर्यादेत काही प्रमाणात सूट देण्यात आली आहे. OBC प्रवर्गातून येणाऱ्या उमेदवारांना अधिक ३ वर्षांची सूट दिली जाईल, तर SC आणि ST प्रवर्गातून येणाऱ्या उमेदवारांना अधिक ५ वर्षांची सूट देण्यात येईल. तसेच दिव्यांग उमेदवारांना अधिक १० वर्षे सूट देण्यात येईल.

जर तुम्ही या भरतीसाठी अर्ज करू पाहत आहात तर तुम्ही SSC उत्तीर्ण असणे बंधनकारक आहे. तसेच तुमच्या गुणपत्रिकेत गणित आणि इंग्रजी या दोन्ही विषयांचा समावेश हवा. संगणकाचे प्रशिक्षण प्रमाणपत्र असणे बंधनकारक आहे. तसेच संगणकासंबंधित बेसिक ज्ञान असणे आवश्यक आहे.


इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनायझेशन (ISRO) ने विविध पदांसाठी भरती जाहीर..

  इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनायझेशन (ISRO) ने विविध पदांसाठी भरती जाहीर केली आहे. भारतीय अंतराळ संशोधन संघटनेने (इस्रो) इलेक्ट्रॉनिक्स, मेकॅनि...